औषधीय वनस्पतियां | महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पतियां

महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पतियां
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वनस्पति विज्ञान विषय से एम.एस-सी. और पी-एच.डी. हैं। आपकी विशेषज्ञता का क्षेत्र पारिस्थितिक विज्ञान है। आप एक समर्पित शोधकर्ता हैं और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिकाओं में अब तक आपके 4 दर्जन से अध‍िक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं। प्रधानाचार्य डॉ.एनडी ¨सह के संयोजन में इस अवसर पर सात दिवसीय ग्रीष्मकालीन शिविर उमंग का शुभारंभ भी हुआ। केएनआइ के ¨हदी विभागाध्यक्ष डॉ.राधेश्याम ¨सह ने फीता काटकर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहाकि जातिभेद की भावना से ऊपर उठकर विद्यार्थियों में समभाव की भावना होनी चाहिए। 
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विशिष्ट अतिथि डॉ.वीपी ¨सह ने पर्यावरण संतुलन के लिए हरेक व्यक्ति को एक या दो पौधे लगाने की हिदायत दी। कहाकि जलस्तर दिनोंदिन नीचे जा रहा है, इसलिए पानी बचाना होगा। 

प्राचार्य डॉ.¨सह ने दस सालों के आंकड़े पेश किए। बताया कि ग्लोबल वार्मिंग व प्रदूषण से 150 औषधीय वनस्पतियां, 10 फीसद पुष्पीय पौधे, 20 फीसद स्तनधारी, 5 फीसद पक्षी अब तक विलुप्त हो चुके हैं। जबकि देश में 29 राष्ट्रीय उद्यान, 400 अभयारण्य हैं, जिसमें 350 स्तनधारी, 2100 पक्षी, 350 सरीसृप व अनगिनत कीटपतंगे पाए जाते हैं। खनन गतिविधियों से प्रभावित भूमि का पुनरूत्थान आपके शोध का प्रमुख विषय है। इसके अतिरिक्त आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मुख्य परिसर की वनस्पतियों पर भी अनुसंधान किया है।
हिमालय अपने प्राकृतिक वन सम्पदा के कारण जैव संवेदी क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। हिमालय के ऐसे ही एक क्षेत्र सिक्किम में 7096 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में करीब पांच हजार पुष्प वनस्पतियां पाई जाती हैं। इनमें से करीब चार सौ वनस्पतियां औषधीय उपयोग में लाई जाती हैं। गोविन्द बल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान की सिक्किम इकाई तांदोग के वैज्ञानिक डॉ. एल.के.रायडॉ. पंकज प्रसाद रतूड़ी एवं डॉ. एकलव्य शर्मा ने सिक्किम हिमालय की छह वनस्पतियों अतीसजटामासीवनककड़ीकुटकीचिरायतापाषाण भेद में से प्रथम चार का अस्तित्व खतरे में पाया। चिरायता के अतिरिक्त पांचों अन्य प्रजातियां उच्च हिमालय क्षेत्रों में ही उगती हैंजबकि चिरायता मध्यम ऊंचाइयों की वनस्पति है।  इसके अतिरिक्त यह बुखार और बिच्छू डंक में भी प्रयोग की जाती है।
बाजार में पहुंचने वाली सभी हिमालयी औषधीय वनस्पतियां का दोहन जंगलों से ही किया जाता है। ज्यादातर व्यापारी इनका दोहन अशिक्षित व अप्रशिक्षित मजदूरों से परम्परागत तरीके से करवाते हैं। इस प्रकार के दोहन में सामान्यत: पौधों को जड़ से उखाड़ कर प्रयुक्त किया जाता है
हर्राबहेड़ा तथा अर्जुन महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पतियां हैं जो आमतौर से उत्तर तथा मध्य भारत में बहुतायत में पायी जाती हैं। ये तीनों वनस्पति प्रजातियां पुष्पीय पौधों के काम्बरिटेसी (Combretaceae) कुल की सदस्य हैं। हर्राबहेड़ा तथा अर्जुन का उपयोग आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में बड़े पैमाने पर होता है। इन वृक्षों के उत्पादों का उपयोग देसी दवा के रूप भी किया जाता है।


 हमारे प्राचीन चिकित्सा ग्रन्थों विशेषकर अथर्ववेद में इन वृक्षों की प्रजातियों के औषधीय गुणों का वर्णन किया गया है। इन वनस्पति प्रजातियों की विशेषताओं एवं उनके औषधीय गुणों का विवरण निम्नलिखित हैः
तीनों वृक्ष प्रजातियां आमतौर से कठोर प्रवृत्ति की होती हैं जो किसी भी प्रकार की मृदा में उगने में सक्षम होती हैं।

हर्रा को हरीतकीएवं हरड़ के नाम से भी जाना जाता है। हर्रा के वृक्ष विशाल होते हैं, जिनकी छाल गहरे भूरे रंग की होती है।  यह देश के पश्चिमी घाट एवं दक्षिण भारत में भी पाया जाता है।

हर्रा का वैज्ञानिक नाम टर्मिनेलिया चेबुला (Terminalia chebula) है। उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में हर्रा के वृक्ष की लम्बाई ज्यादा होती है। इसकी पत्तियाँ साधारण प्रकार की तथा डण्ठलयुक्त होती हैं। पत्तियों की लम्बाई 3-6 सेमी. होती है। इस वनस्पति के औषधीय गुण
आमतौर से फल में पाये जाते हैं। फल का गुदा अतिसार, पेचिश, दमा, मंदाग्नि, आंत की सूजन, उल्टी, पेशाब सम्बन्धी व्याधियों तथा यकृत व्याधियों में दिया जाता है।


 फल के गुदे के उपयोग बाह्य तौर पर अल्सर तथा घाव के उपचार में भी किया जाता है। फल का महीन चूर्ण दाँत तथा मसूड़ों सम्बन्धी बिमारियों के उपचार में कारगर होता है। पके फल के सेवन से मानसिक दुर्बलता के उपचार में सहायता मिलती है।